‘‘पारम्परिक अल्पना’’ - कार्यशाला
शास. डाॅ. वा.वा. पाटणकर कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय में भूतपूर्व छात्रासंघ समिति के तत्वाधान से पारम्परिक अल्पना बनाने पर एकदिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया।
भूतपूर्व छात्रासंघ समिति की संयोजक डाॅ. रेशमा लाकेश ने बताया कि अल्पना भारतीय कला एवं संस्कृति का अनुठा एवं उत्कृष्ठ नमूना है। पौराणिक युग से ही विशेष अवसरांे जैसे तीज-त्यौहार आदि पर भारतीय नारियाँ- चावल का आटा, हल्दी, रोली, सिन्दूर, गेहूं का आटा आदि से विभिन्न प्रकार की अल्पनाओं को बनाती थी एवं अपने भीतर छिपे भावों को अभिव्यक्त करती थी।
आज भी विभिन्न धार्मिक पर्व एवं त्योहारों के अवसर पर अल्पना बनाती है। अल्पना अर्थात् मन के भीतर छिपे भावों को कलात्मक रूप देना है। उंगलियों के माध्यम से बनाई गई कलात्मक चित्रकारी को अल्पना कहते है। महाविद्यालय की भूतपूर्व छात्रा डाॅ. जया साहू ने विषय-विशेषज्ञ के रूप में अल्पना से संबंधित विस्तृत जानकारी दी तथा इसमें लगने वाली सामग्री, नमूने, रंग व्यवस्था एवं रेखाओं, ज्यामितीय डिजाईन का उपयोग करके पशु-पक्षी, फूल-पत्तियों आदि के नमूने बखुबी बनाये जाते है।
पहले अल्पना पीसे हुए चावल के आटे को जल से घोलकर ही बनाया जाता था, परंतु अब इसे बनाने में गेरू मिट्टी, खड़ियाँ, वाटर कलर, फैब्रिक कलर, जींक पावडर का भी उपयोग किया जाने लगा है, साथ ही रंग समायोजन का भी ध्यान रखना चाहिए। डाॅ. ज्योति भरणे ने अल्पना बनाने के समय ध्यान देने वाली योग्य बातों की जानकारी दी और कहा कि अल्पना फर्श सज्जा का बहुत संुंदर माध्यम है। महाविद्यालय द्वारा समय-समय पर भारतीय कलाओं को सिखाने हेतु इस तरह के आयोजन किया जाता है।
इस अवसर पर महाविद्यालय के प्राध्यापक डाॅ. अमिता सहगल, डाॅ. अल्का दुग्गल, डाॅ. मीनाक्षी अग्रवाल, डाॅ. बबीता दुबे, डाॅ. सुनीता गुप्ता, डाॅ. ज्योति भरणे, डाॅ. ऋतु दुबे, डाॅ. योगेन्द्र त्रिपाठी, डाॅ. मिलिन्द अमृतफले आदि उपस्थित रहे।