प्रेमचंद जयंती पर कहानी लेखन कार्यशाला
शासकीय डाॅ0 वा0 वा0 पाटणकर कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय दुर्ग में हिन्दी विभाग के द्वारा प्रेमचंद जयंती के अवसर पर स्वरचित कहानी लेखन कार्यशाला का आयोजन किया। आयोजन के मुख्य अतिथि अंचल के व्याख्यात रचनाकार श्री शरद कोकास जी थे एवं अध्यक्षता महाविद्यालय के प्राचार्य डाॅ. सुशील चन्द्र तिवारी ने की। इस कार्यशाला में महाविद्यालय की 12 छात्राओं ने कहानियाँ लिखीं। एम.ए. हिन्दी की दुर्गा कुमारी, मोनिक यादव एवं विभा कसेर ने बेटियाँ, बुढ़ापा एवं मेहनत की कमाई शीर्षक से कहानियाँ लिखीं। बी.ए. प्रथम वर्ष की साक्षी चैहरिया ने पिंजरे के पंछी, राधा साहू ने मोहन के सपने लिखी। एम.ए. भूगोल की तृष्णा ने निःसंतान एवं तृप्ति ने ‘वृद्धाश्रम’ शीर्षक कहानी लिखी। होमसाईंस की छात्राएँ वर्षा कुमारी एवं रानू टकिरया ने मेरे पिताजी और किसान की व्यथा एवं वामन लिखी तो बी.एससी की स्नेहल ने गौरी और दिव्या ने लघुकथा लिखी।
हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष डाॅ. यशेश्वरी धु्रव ने छात्राओं की कहानियों के विषयवस्तु को रेखांकित किया। उन्होनें इस प्रकार के आयोजनों की आवश्यकता एवं उद्देश्य पर प्रकाश डाला।
प्राचार्य डाॅ. सुशील चन्द्र तिवारी ने कहा की प्रेमचंद की कहानी गोदान का मूल पक्ष किसान का पक्ष है। जिसमें उसके त्रास, अन्याय का चित्रण है। होरी और धनिया अपार प्रेम भाव से रहने वाले एक प्रेरणादायक चरित्र है। प्रेमचंद ने स्त्री-पुरूष संबंध में साहचर्य का भाव देखा। वर्तमान की समस्याओं में भी हमें प्रेमचंद की रचनाएँ दिखाई देती है जो प्रेरणादयक है।
साहित्यकार शरद कोकास ने कहा कि सूक्ष्म पर्यवेक्षण की क्षमता एक रचनाकार की ताकत होती है। सभी बच्चों के अन्दर कहानी कहने की क्षमता होती है इस क्षमता का विकास करने की आवश्यकता है। अपने निरीक्षण क्षमता और जानने की इच्छा को और बढ़ाओ। भाषा पर दक्षता हासिल करो। कहानी कहने का ढंग भी बहुत महत्वपूर्ण है। कहानी का प्लाट (कथानक) होता है। जिसमें पात्रों के बीच संवाद हो तथा वह उद्देश्य को रेखांकित करते हुए समाप्त हो। उन्होनें कहा कि हमारे आस-पास तमाम कहानियाँ विविध विषमताओं विसंगतियों के रूप में पड़ी हुई है। हमें उन्हें महसूस करना है और उसे स्वर देना है उन्होनें छात्राओं की रचनात्मक प्रतिभा को सराहा और लेखन आगे जारी रखने की सलाह दी।
डाॅ. अम्बरीश त्रिपाठी ने बताया कि प्रेमचंद को गुजरे लगभग 83 वर्ष हो गए हैं उनके लेखन से प्रभावित होकर उनके युग का ही नाम प्रेमचंद युग पड़ा और आज तक कथालेखन में प्रेमचंद की परंपरा चल रही है। प्रेमचंद को स्वाधीनता आन्दोलन के पत्रकार कहना अनुचित न होगा। सन् 1907 से 1936 तक 29 वर्षों की उनकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्वाधीन चेतना की विकास गाथा और भारतीय समाज की आलोचना का जीवंत दस्तावेज है।
कार्यक्रम के अंत में डाॅ. ज्योति भरणे ने आभार ज्ञापित किया।